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मंगलवार, 5 मई 2009

मिलेंजीवन के किसी मोड़ परयूँ ही

एक दिन कभीशायद हम फिर मिलेंजीवन के किसी मोड़ परयूँ ही भटकते हुएतब शायद हम ढोंग करेंएक-दूसरे को न जानने का।
या फिर हम पहचान लेंऔर थोड़ा मुस्कुरा कर कहें“अच्छा लगा तुमसे मिलकर”और कर के कुछ इधर-उधर क़ी बातेंअचानक कोई ज़रूरी काम याद आने की बात कहकरथोड़ा और मुस्कुराएंगेऔर अलग होंगें कह करफिर से मिलने क़ी उम्मीदों के बारें में ।
लेकिन ये सब कुछशुरू से ही झूठ होगाधोखा होगा ख़ुद से हीउस वक़्त हमे मिलना पसंद न आए शायदभारी लगे मुस्कुराना,दर्द दे बातें करनाऔर तो औरफिर से अलग होना भी परेशान करेगादिल रोएगा आँसू छिपाफिर से अलग होने क़ी बेबसी से।
लेकिन कभी नही रहाइतना समझदार ये दिलये फिर से मिलना चाहता हैबातें करना और मुस्कुराना चाहता हैज़ख़्मों को फिर से खोल-खोल करफिर-फिर से रोना चाहता है।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

मामू ,
आपकी पोस्ट की हुई lines सच में कही न कही जीवन से जुडी हुए है |
धन्यवाद "मिलेंजीवन के किसी मोड़ परयूँ ही" के लिए ....
:)