मुखपृष्ठ

बुधवार, 28 जुलाई 2010

भष्ट बेपरवाह और बिंदास

आप चाहे जो कहें। पर भष्ट होना आज की तारीख में श्रेष्ठ होने से कमतर नहीं है। श्रेष्ठ होने का पैमाना होता है मगर भष्ट होने का कोई पैमाना नहीं होता है। आप कैसे भी। कहीं भी। किधर भी। भष्ट हो सकते हैं। कहीं कोई रोक-टोक नहीं। समाज में जितनी जल्दी पहचान भष्ट और भष्टाचार को मिलती है, उतनी श्रेष्ठ को नहीं। श्रेष्ठ हट-बचकर, साफ-सफाई के साथ जिंदगी को जीते हैं। भष्ट बेपरवाह और बिंदास होकर जिंदगी का मज़ा लेते हैं। श्रेष्ठ जेल जाने से भय खाता है। भष्ट खुलकर जेल जाता है। श्रेष्ठ के पांव होते हैं। भष्ट के पांव नहीं होते।
अभी हाल ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल ने जो सूची जारी की है उसे जान-पढ़कर मैं बेहद प्रसन्न हूं। भष्टाचार में हम 72वें से 74वें स्थान पर आ गए हैं। हमारे भष्ट होने-कहलवाने में दो अंकों का सुधार हुआ है। यह सुधार जितना रचनात्मक है उतना ही विचारात्मक भी। इससे पता चलता है कि भष्टाचार हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बनता जा रहा है। इसकी उपयोगिता बढ़ने लगी है। लोग भष्ट होने के नए-नए तरीके सोचने-खोजने लगे हैं। हर कोई फिराक में है कि दांव लगे और गर्दन काटें। अब तक सरकारी महकमा ही भष्टाचार फैलाने का दोषी माना जाता था लेकिन अब निजी संस्थान भी उसी राह पर चलने लगे हैं। भष्टाचार भारत के कण-कण। रग-रग में अपनी पैठ जमा चुका है।
जिन्हें ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल की रपट के आधार पर भारत के भष्ट-चरित्र पर ऐतराज़ है उनसे मेरा कहना है कि हम भष्टाचार में अभी बहुत पीछे हैं। आप ज़रा आंकड़े उठाकर देखिए हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान तो 140वें रूस, 145वें, ईरान और लीबिया 134वें व 135वें पायदान पर हैं। भष्टाचार में चीन भी कहां पीछे है हमसे। क्या आपको नहीं लगता इन तमाम भष्ट देशों के बीच हम कितने कम-भष्ट-देश हैं!
हम भष्टाचार को निभाना जानते हैं। हम भष्ट होते या बनते वक्त इस बात का पूरा ख्याल रखते हैं कि सामने वाला हमारा सहयोगी बन हमारा साथ निभाए। हमारे यहां अब तक जितने भी छोटे-बड़े घपले-घोटाले हुए हैं उनमें किसी एक की भूमिका कभी नहीं रही। कई-कई लोग इस भष्ट-मिशन में संग-साथ रहे। भष्टाचार का यह नियम है कि वो कभी एक व्यक्ति द्वारा संचालित नहीं होता। उसे जन-समर्थन हर कीमत पर हर जगह से चाहिए।
मुझे तो उन सिरफिरों की बातों को सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है जो भष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प यहां-वहां लेते फिरते हैं। हकीकत यह है कि ये आशावादी लोग आज तक अपनी सोच के भीतर छिपे भष्टाचार को बाहर नहीं ला पाए हैं, समाज का भष्टाचार क्या ख़ाक खत्म करेंगे! मेरे विचार से ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल को एक रपट लोगों की सोच के भीतर छिपे-बैठे भष्टाचार पर तैयार करनी चाहिए ताकि हम जान-समझ सकें कि हम दिमागी तौर पर किस कदर भष्ट हैं। अगर यहां सामाजिक भष्टाचार है तो दिमागी भष्टचार भी कुछ कम नहीं। अंततः भष्टाचार दिमाग की ही तो उपज है।

कोई टिप्पणी नहीं: