याद है तुम्हें..... वो रात
जब जिस्म की सलाइयों में....
दो रूहें पिरोकर हमने....ज़िन्दगी का पैरहन बुना था...
मगर एक रोज़ तुमने...किसी अजनबी से....
उसकी तिजारत कर ली....
उधेड़कर तुमने उसको....जाने कैसे...
किसी और सलाई में बुन डाला
जब जिस्म की सलाइयों में....
दो रूहें पिरोकर हमने....ज़िन्दगी का पैरहन बुना था...
मगर एक रोज़ तुमने...किसी अजनबी से....
उसकी तिजारत कर ली....
उधेड़कर तुमने उसको....जाने कैसे...
किसी और सलाई में बुन डाला
और मैं...उधेड़ रूह में.....अब तक
तुम्हारा ख़याल बुनता हूँ...
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