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मंगलवार, 26 मार्च 2013

रिश्ते-नातों की यह पेंटिंग जिस कैनवास पर रची जाती है, वह है — घर

जिंदगी की जिंदादिल महफिल में आप सबका स्वागत। यह पंक्ति पढ़कर यकायक लगेगा कि हम कोई रेडियो प्रोग्राम तो नहीं सुन रहे। अब इसका जवाब यह है कि नहीं, आप लेख ही पढ़ रहे हैं, लेकिन यहां बात जिंदगी की हो रही है तो स्वागत की रस्म अदायगी जरूरी है और रस्म भी महज निभाने के लिए नहीं, बल्कि जिंदगी को महसूस करने के लिए है। जिंदगी को भरपूर जीना जरूरी है, नहीं तो यह महफिल वीरान रह जाएगी।



उत्साह से खाली हुई जिंदगी एकदम खाली बर्तन की तरह है, यह तो आप मानते ही होंगे। चलिए, एक बार फिर जीवन का अर्थ तलाशने की कोशिश में जुट जाते हैं और दोहराते हैं वही सनातन मंत्र — जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो लिया। किसी का होने का मतलब साफ है — दूजे के होंठों पर खुशी के गीत पिरोने का यत्न। ऐसी कोशिश, जिसका अंजाम किसी के लिए भी मुस्कुराहटों की फसल उगाना।


अच्छा, एक प्रश्न का उत्तर दीजिए जरा — इस फानी जिंदगी के बीच सबसे ज्यादा अक्षुण्ण, न मिटने वाला क्या रह जाता है। जवाब है — अच्छे कर्मो की, सुंदर व्यवहार की याद। हम सब संसार में एक-दूसरे के साथ किसी न किसी संबंध में बंधे हैं। कभी गौर करिए तो पाएंगे कि अखिल ब्रम्हांड, असंख्य आकाशगंगाओं और उनमें पलता जीवन, यहां तक कि जड़ वस्तुएं तक अन्योन्याश्रित हैं, पारस्परिक संबद्ध हैं। झरना पहाड़ से जुड़ा है, नदी झरने से। नदी बह चली तो समंदर से मिली।

समंदर का रिश्ता नदी से हुआ और जब भाप बनकर यही पानी उड़ा तो बादल बन गया। बारिश हुई और धरती का सीना लहलहा उठा। फसलें खिलीं और इंसान की भूख मिटी। देखिए, सब एक-दूसरे का हाथ किस कदर शिद्दत के साथ थामे हुए हैं। एक-दूसरे को अपना सब कुछ सौंपते हुए, फिर भी कोई एहसान नहीं जताते, अपनी कृपाओं की, साथ की, मोहम्बत की कोई डींग नहीं हांकते। महज इंसान ही बदल गया। उसने सबसे सब लिया और बदले में अपनी ओर से कुछ देने में हर पल कंजूसी बरती। कोई रिश्ता एकतरफा कहां होता है, नतीजा — कुदरत नाराज हुई। अक्सर होती रही है। कभी भू-स्खलन के रूप में, किसी पल बाढ़ और भूकंप की शक्ल में अपना गुस्सा दिखाती रही है, लेकिन इंसान यह नाराजगी समझना ही नहीं चाहता। वक्त आ गया है कि प्रकृति और पुरुष, यानी इंसान के संबंधों की गर्माहट को समझा जाए।

चलिए, कुदरत से अलग, दुनियाबी रिश्तों की बात करते हैं। कोई परिवार कैसे बनता है? आप कहेंगे, यह कौन-सा सवाल हुआ? हम सब जानते हैं कि संबंधों से ही परिवार की बुनावट होती है। माता-पिता, उनके बच्चे। बाकी बुजुर्ग और रिश्तेदार। यही सब मिलकर परिवार की शक्ल करते हैं, लेकिन रिश्ते-नातों की यह पेंटिंग जिस कैनवास पर रची जाती है, वह है — घर। हम कई बार इसे ही भुला देते हैं। यूं भी, हर रिश्ता कुछ कहता है, कुछ चाहता है। न.. नए कोई उपहार नहीं, आदर जैसी चीज भी नहीं, लेकिन प्यार के बदले प्यार की चाहत तो सबकी होती है।

सारी दुनिया में भारतीय परिवारों की सराहना होती है। कुछ तथाकथित पढ़े-लिखे लोग उपहास भी उड़ाते हैं कि हिंदुस्तानी पत्नी को अयोग्य पति भी मिल जाए तो वह उसका जिंदगी भर साथ देती है, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। सच तो यह है कि भारतीय परिवारों की जमीन में स्नेह और संस्कार का जो बीज मिला है, उससे विश्वास का वृक्ष तैयार होना स्वाभाविक है। पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी चलाते हैं तो भाई-बहन एक-दूसरे के व्यक्तित्व की नींव मजबूत बनाते हैं।

दादा-दादी से संस्कार मिलते हैं, वहीं नाना-नानी, मौसा-मौसी, मामा-मामी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची जैसे रिश्तों से अगाध स्नेह की मीठी-मीठी बारिश होती है। हर रिश्ते में कभी थोड़ी दूरी आती है तो कई बार लगता है — ये रिश्ते न होते तो जिंदगी में भला होता भी क्या! आइए, हम इन संबंधों की ऊष्मा को समझें। रिश्तों को महज ढोने, संभाले रखने, उनके साथ घिसटने की स्थितियों से बाहर निकलें। ये नाते मोहम्बत के तार हैं। इन्हें और मजबूत बनाएं। वक्त आ गया है कि हम रिश्तों की बोली को समझें और एक मुस्कान के बदले ढेर सारी हंसी देने को तैयार हो जाएं। लीजिए, मैं मुस्कुरा रहा हूं, अब आप अपनी हंसी की पोटली खाली कीजिए न झट से!

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