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मंगलवार, 26 मार्च 2013

पहल खुद से हो ......

एक सूफी कहावत है कि ‘खुद को बेहतर बनाना ही, बेहतर गांव, बेहतर शहर, बेहतर देश और बेहतर दुनिया बनाने की ओर पहला कदम होता है।’
 
आप और जो भी हों फिलहाल एक पाठक हैं और अपने को गंभीरता से ले रहे हैं — तभी तो आप यह पढ़ रहे हैं! लेकिन आप सिर्फ पाठक ही नहीं, आप विद्यार्थी, शिक्षक, सैनिक, वकील, एग्जीक्यूटिव, व्यवसायी, कर्मचारी, मां, बाप, बहन, भाई और भी बहुत कुछ हो सकते हैं। इन सभी चीजों को कैसे लेते हैं? जाहिर है, आप कहंेगे कि गंभीरता से लेते हैं। हो सकता है लेते भी हों। 
 
लेकिन कई बार आप एकदम मामूली और व्यक्तिगत सवालों का भी तत्काल जवाब नहीं दे पाते! कोई अगर पूछे कि खाने में सबसे ज्यादा आपको क्या पसंद है तो जवाब देने से पहले आप सोचते हैं। आपका सोचना बताता है कि आप अपनी पसंद-श्नापसंद को भी ठीक से नहीं जानते, फिर कैसे मान लिया जाए कि आप अपने को और अपनों को गंभीरता से ले रहे हैं?
 
मेरे ख्याल से अपने को गंभीरता से लेने का मतलब है अपनी रुचियों, अपने रिश्तों, अपनी कमियों, अपनी संभावनाओं को जानना-समझना। जो नकारात्मक है उसे कम करते जाना और जो सकारात्मक है उसे संजोते-संवारते जाना। अपने को गंभीरता से लेने का मतलब है, दूसरों को भी गंभीरता से लेना, प्रकृति को गंभीरता से लेना। अपने को व्यक्ति ही नहीं सामाजिक प्राणी समझना। यानी अपनी वैयक्तिकता और सामाजिकता को समझना। 
 
किसी टीवी चैनल पर एक इंटरव्यू चल रहा था। प्रश्नकर्ता ने पूछा, ‘और अंत में कोई संदेश?’ और उसने मुस्कुराते हुए कहा, ‘टेक योरसेल्फ सीरियसली’। कहने वाला ज्योफ्रे आर्थर था। 
 
एक बेहद लोकप्रिय लेखक। उनकी बात ‘नाविक के तीर’ की तरह दिल में उतर गई थी। कई महीने हो गए। मैं उसी वाक्य में डूबता रहा हूं — ‘ज्यों बूड़े त्यों-त्यों तरे’ वाले अंदाज में। मुझे लगा इतनी उम्र हो गई पर क्या मैं अपने को गंभीरता से ले पाया हूं? बात खुलती गई और खुलती जा रही है। सोचा आपसे साझा कर लूं। हो सकता है आपको भी मेरी तरह झकझोर दिए जाने वाला एहसास हो। 
 
‘मैं कौन हूं’, यह मनुष्य के आदि प्रश्नों में से एक प्रश्न है। मैं से मतलब मेरा शरीर, मेरा मन-मस्तिष्क, मेरा व्यक्तित्व, मेरा अनोखापन, मेरे रिश्ते, मेरा समाज। और फिर इस गतिमान संसार में मैं कहीं अटका तो पड़ा नहीं हूं। मेरा एक अतीत है, वर्तमान है, भविष्य है, मेरी एक दिशा है, एक राह है। इसका मतलब हुआ कि मुझे अपने को गंभीरता से लेने के लिए अपने को समग्रता में लेना होगा, एक व्यक्ति, एक ऐतिहासिक, एक सांस्कृतिक और एक सामाजिक प्राणी के रूप में। 
 
गंभीरता के लिए गंभीर दिखना जरूरी नहीं। हम हंसते-खेलते हुए भी गंभीर हो सकते हैं। खेल-कूद, हंसी-मजाक, सफाई और गंदगी सभी गंभीर चीजें हैं। किसी को बढ़ाना गंभीरता है और किसी घटाना या खत्म करना। 
 
वास्तविकता यह है कि हम जो भी ‘अच्छा/सही’ करते हैं उसका श्रेय लेना चाहते हैं और जो भी ‘बुरा/गलत’ करते हैं, उसके लिए दूसरों को, जमाने को, किस्मत को दोष देते हैं। गंभीरता से लेने का मतलब है — अपने गुण-दोष, सही-गलत के लिए पहले अपने को फिर वंश-परंपरा, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, मित्र-शत्रु और सरकार-व्यवस्था को दोष देना। जो कारण बाहर हैं, उनके संबंध में कुछ कर पाना केवल हमारे हाथ में नहीं। पर जो अंदर के कारण अगर उन्हंे जान-समझ लें तो आप सीमाओं को घटाने और संभावनाओं को बढ़ाने में लग सकते हैं, और तत्काल। व्यवस्था-परिवर्तन में तो वक्त लगता ही है, पर अपना परिवर्तन तो तत्काल शुरू हो सकता है। 
 
यह क्रांतिकारी उपक्रम शुरू कैसे हो? यह भी सीधी बात है। पहले तो यही देखें कि यह ‘अपना’ जिसे गंभीरता से लेना है वह है क्या? शरीर और मन-मस्तिष्क। इन्हें तो गंभीरता से लेना ही पड़ेगा, क्योंकि ‘शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनम्’ और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन-मस्तिष्क। हम शरीर को तो थोड़ा गंभीरता से ले भी लेते हैं पर मन-मस्तिष्क को तो मानो भगवान-भरोसे ही छोड़े रहते हैं, जबकि उनका भी भौतिक आधार है और उन्हें भी पोसा-संवारा जा सकता है।
 
फिर सवाल उठता है अपने विविध रूपों का, रिश्तों का, हैसियतांे का। हमारे एक साथ कई रूप होते हैं। अक्सर एक को गंभीरता से लेने पर दूसरा नजरअंदाज होता दिखता है। जैसे कोई अपने पति रूप को गंभीरता से ले तो पुत्र-रूप नजरअंदाज हो सकता है, व्यक्तिगत सफलता को गंभीरता से लें तो सामाजिक रूप हाशिए पर जा सकता है।
 
ऐसा इसलिए होता है कि हम चीजों को समग्रता में नहीं ले पाते। हम अपने अपनत्व को संकीर्ण बनाते चले जाते हैं। अपनापन सिकुड़ता जाता है तो अपने पराए होते जाते हैं। अंतत: हम स्वयं भी पराएपन के शिकार होते जाते हैं। अजनबियत का विस्तार और इंसानियत का क्षरण होता चला जाता है। हम एक बार इतिहास और अपने चारांे ओर नजर दौड़ाकर तो देखें, हमें अनेक ऐसे लोग नजर आएंगे जिन्होंने अपने को गंभीरता से लिया और असंभव को संभव कर दिखाया, जैसे हेलेन केलर, गांधीजी, हाकिंग। हम सबके आसपास ऐसे बहुत से लोग दिखेंगे जिन्होंने अपने को गंभीरता से नहीं लिया, जैसे असाधारण साहित्यकार भुवनेश्वर। इस तरह वह गुमनामी में खो गए और समाज को एक अनोखी प्रतिभा से वंचित कर दिया। ऐसे भी लोग हैं और हुए हैं, जिनका अपने को गंभीरता से लेने का मुद्दा विवादास्पद हो सकता है जैसे रूसो और बोहे मियंस। 
 
यदि एक बार हम ठीक से आत्मसात् कर लें कि हमारे नितांत वैयक्तिक में भी सामाजिकता निहित है और नितांत सामाजिक में भी वैयक्तिक निहित है तो बात आसान हो सकती है। बहुत छोटा-सा उदाहरण देखें — सुबह ब्रश करना तो एक व्यक्तिगत काम है पर क्या इसका भी एक सामाजिक पहलू नहीं है? क्या अगर हमारे दांत गंदे रहते हैं और हमंे पायरिया हो जाता है तो इससे समाज प्रभावित नहीं होगा? इसी तरह समाज-सेवा या सामाजिक परिवर्तन का भी यह व्यक्तिगत पहलू नहीं है कि वांछित परिवर्तन हमारे अंदर भी आए — हमारा आचरण व्यवहार भी बदले? 
हम व्यक्तिवादी हों या समाजवादी, आस्तिक हों या नास्तिक, युवा हों या बुजुर्ग, अपने को गंभीरता से लेना हमारी विश्व-दृष्टि और विचारधारा का अभिन्न अंग होना चाहिए। इसके हर हाल में सकारात्मक परिणाम निकलेंगे। 
 
किसी बदलाव का कुछ तयशुदा नुस्खा नहीं, लेकिन बदल पाता है जो खुद को वही सबको बदलता है।

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