धन
हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग दिवाली इसी विचार से मनाते हैं। यह
संसार की साधारण परिभाषा है, लेकिन अध्यात्म बताता है बिना धन के धनवान
कैसे बनें? दौलत को ही धन न समझा जाए। लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं।
लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के भी अधिक दौलतमंद होगा। ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।
सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया।
दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है। धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा? यहीं से अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है।
सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा। लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम दूंगी, आदमी समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।
------------------------------------------------------------------------------- पं. विजयशंकर मेहता
लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के भी अधिक दौलतमंद होगा। ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।
सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया।
दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है। धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा? यहीं से अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है।
सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा। लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम दूंगी, आदमी समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।
------------------------------------------------------------------------------- पं. विजयशंकर मेहता
1 टिप्पणी:
सत्यवचन (You may remove word verification, it is unnecessary)
एक टिप्पणी भेजें