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शनिवार, 30 मार्च 2013

सफलता के 20 मँत्र....

1.खुद की कमाई से कम खर्च हो ऐसी जिन्दगी बनाओ..!
2. दिन मेँ कम से कम 3 लोगो की प्रशंशा करो..!
3. खुद की भुल स्वीकार ने मेँ कभी भी संकोच मत करो..!
4. किसी के सपनो पर हँसो मत..!
5. आपके पीछे खडे व्यक्ति को भी कभी कभी आगे जाने का मौका दो..!
6. रोज हो सके तो सुरज को उगता हुए देखे..!
7. खुब जरुरी हो तभी कोई चीज उधार लो..!
8. किसी के पास से कुछ जानना हो तो विवेक से दो बार पुछो..!
9. कर्ज और शत्रु को कभी बडा मत होने दो..!
10. ईश्वर पर पुरा भरोशा रखो..!
11. प्रार्थना करना कभीमत भुलो, प्रार्थना मेँ अपार शक्ति होती है..!
12. अपने काम से मतलब रखो..!
13. समय सबसे ज्यादा किमती है, इसको फालतु कामो मेँ खर्च मत करो..!
14. जो आपके पास है, उसी मेँ खुश रहना सिखो..!
15. बुराई कभी भी किसी कि भी मत करो करो,
क्योकिँ बुराई नाव मेँ छेद समान है, बुराई छोटी हो बडी नाव तो डुबोही देती है..!
16. हमेशा सकारात्मक सोच रखो..!
17. हर व्यक्ति एक हुनर लेकर पैदा होता बस उस हुनर को दुनिया के सामने लाओ..!
18. कोई काम छोटा नही होता हर काम बडा होता है जैसे कि सोचो जो काम आप कर रहे हो अगर आप वह काम आप नही करते हो तो दुनिया पर क्या असर होता..?
19. सफलता उनको ही मिलती है जो कुछकरते है
20. कुछ पाने के लिए कुछ खोना नही बल्कि कुछ करना पडता 

मंगलवार, 26 मार्च 2013

साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है...


महापुरुषों को हम उनके विशिष्ट गुणों के चलते मान सम्मान देते हैं, लेकिन एक बात पर आपने कभी गौर किया है? हादसे उनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा हरदम रहे। दुख के झंझावात से घिरे रहकर उन्होंने कभी सृजन का, नए चिंतन का दामन नहीं छोड़ा और हम? हम क्यों ठहर जाते हैं एक छोटे से तनाव के, कष्ट के, संकट के आगे?
दौड़ता भागता जीवन किसी मोड़ पर रुक गया और लगने लगा — अब एक कदम भी आगे बढ़ाना न हो सकेगा, तब मन में आया है यह विचार बारबार — सांसें ही गुजारनी हैं, ज़िन्दगी का आनंद तो जाता रहा। हालांकि ऐसा सोचना निराधार है। ऐसा होना सिर्फ जीवन की बहुरंगी फिल्म का मध्यांतर है, ‘द एंड’ नहीं। सिनेमाघर में फिल्म देखते हुए हम यकायक पाते हैं कि पीछे से आता प्रकाश थोड़ी देर के लिए ठहर गया और रील पर छपी चटख तसवीरें सामने फैले चांदी जैसे परदे पर उभरनी बंद हो गई हैं। यह वक्त होता है, ढाई-तीन घंटे की फिल्म के बीच थोड़ी देर सुस्ताने का। ऐसे ही जीवन में आता है मध्यांतर। थमी हुई ज़िन्दगी को नवजीवन देने की बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि जीवन दरअसल, है क्या! सचमुच यह एक पहेली है, जो कभी हंसाती है, कभी रुलाने में भी कसर नहीं छोड़ती, लेकिन हम भी क्या खूब आशिक हैं, जो इससे इश्क करना कभी नहीं छोड़ते। कितनी भी मुश्किल में। यही है जिजीविषा। जद्दोजहद ज़िन्दगी के लिए। सब कुछ सम रहे, हर मौका महज खुशी लेकर आए, तब भी तो ज़िन्दगी नीरस हो जाएगी। दुख, व्याधियां, बीमारियां, मुश्किलें — असल सहचर हैं। अक्सर दामन थाम लेती हैं। इनका हंसकर ही स्वागत करना चाहिए।

खैर, हम बात कर रहे थे नवजीवन की, एक नई ज़िन्दगी अपने व्यक्तित्व को दे देने की! तो जब कभी ऐसी जरूरत आ जाए तो क्या करना चाहिए? क्या दुख से घिरकर निढाल होना सही होगा या फिर उसका हिमत के साथ मुकाबला करना.. दुख में ही नएपन की नींव डाल लेना! यकीनन, आप कहेंगे कि दुख से दोदो हाथ करना ही समझदारी है पर कैसे..?
जीवन को उलझन मान लेने से कोई हल नहीं निकलता। क्यों, जीवन जीने की कला हम सीख ही लें। जान लें, वो अंदाज, जिससे ज़िन्दगी खूबसूरत हो जाती है.. खुशनुमा बन जाती है। सोचिए,ज़िन्दगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तसवीरें रंगत बिखेरती नजर आएंगी। ज़िन्दगी जीना अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप कलाकार की तरह ज़िन्दगी को महसूस करें। जीवन की सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में सुनें।

एक सूक्ति है — साहित्य संगीत कला विहीन:,साक्षात पशु: पुच्छ विषाण हीन:। इसमें कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है। हम ऐसे न बन जाएं, इसके लिए सृजनात्मकता की लहर से थके मन को लैस कर देना होगा। यूं, सृजन का तात्पर्य साहित्य, संगीत और कला से ही नहीं है। क्रिएशन, यानी कुछ जन्म देना। कुछ नया गढ़ना। कुछ अलहदा संजो लेना। जीवन में कला कितनी जरूरी है.. इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं। राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह कराने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का जमाना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता, लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा कि वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी मैं अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा था।

सोचने वाली बात है। हम सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं? क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए? और यह बात खुद को खास करने तक ही सीमित नहीं है। जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव नहीं होगा, हम ज़िन्दगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, लेकिन यह आवश्यक है कि कला-साहित्य और संगीत समेत विभिन्न सर्जनात्मक कलाओं के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उन्हंे सराहने का भाव पैदा किया जाए।
हमारे लिए सवाल है..! क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती है? कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंखों में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं? कोई चित्र देखते समय हम मंत्रमुग्ध हो पाते हैं.. अगर ‘हां’ तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िन्दगी हमारे लिए प्यार का गीत है, लेकिन जवाब ‘न’ में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िन्दगी के रास्ते से कला का भाव भटक गया है। ये जरूरी है कि हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाएं और ज़िन्दगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सीख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी.. इसकी चमक कुछ और ही होगी।
हम बार-बार कहते हैं कि ज़िन्दगी जीना सबसे बड़ी कला है। ‘कला’ के रूप में रूढ़ माध्यम, विधाएं, शैलियां — इसी का हिस्सा हैं। कोई किताब पढ़ना, उसे समझना, उसके संदेशों को ग्रहण करना भी किसी कला से कम नहीं। यूं देखें तो हम सब कलाकार हैं। मकान बनाना, खाना पकाना, अच्छी तरह से ड्राइविंग करना, यातायात के नियमों का पालन करना, आपसी आचार व्यवहार — यह सब अनुशासन और नैतिकता के लिहाज से जितने जरूरी है, उतने ही जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए भी आवश्यक हैं। इसी विचार के साथ लौटते हैं वहां, जहां से बात शुरू की थी तो फिर सामने आता है — डरा देने वाला, हमें ठहरने को मजबूर करने वाला दुख। कोई हादसा। एक संकट। कहीं भावनात्मकता के बोझ से दबी हमारी सकारात्मकता की चीख, लेकिन यहीं जरूरी है विचार — जीवन के आनंद से बड़ा और कुछ नहीं है।
मार्के की बात यही है कि हादसों से डरकर कभी सृजन नहीं हो सकता। कलाओं के, मानवमात्र के, अपनी सबसे सच्ची दोस्त कुदरत के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। सात्र्र कहते थे — ‘मैं जब लिखता हूं तो निराशा के जाल में खूबसूरती पकड़ने की कोशिश करता हूं।’ सात्र्र की यह बात कितनी मौजू है न! अब अगली बार, निराशा से जूझते हुए कुछ रचने की कोशिश कीजिएगा। यकीनन, खिल उठेंगे आप।
श्रीमद्भागवत में कहा गया है — स्मृतियों में लगातार दोहराया जाए तो बीता हुआ सुख भी दुख की प्रतीति देता है, ऐसे में दुख से पीड़ा के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। यह एक सत्य है और संदेश भी। बेहतर यही होता है कि हम संत्रास के कालेपन को पीछे धकेलकर आने वाली ज़िन्दगी का इस्तकबाल करें। जोश के साथ जीवन के पीछे छूट गए उत्साह को आवाज दें। ज़िन्दगी दोगुने उत्साह के साथ बगलगीर होगी। कहते हुए — हां! तुम तो गुनगुना रहे हो, मुस्कुरा रहे हो, तुम में जीने का उत्साह बाकी है, फिर दुख परेशान कैसे कर सकता है?

बात थोड़ी आध्यात्मिक जरूर लगेगी, लेकिन गौर कीजिए तो बेहद सामान्य और उतनी ही विशिष्ट भी है। स्वयं को साक्षी मानकर अपने आसपास के लोगों के जीवन पर नÊार डालिए। कितना कष्ट सबकी ज़िन्दगियों में घुसपैठ किए हुए है। हमारे लिए जरूरी यह है कि हम बाकी लोगों को थोड़ी खुशी दे सकें, या फिर स्वयं किसी व्यर्थ पीड़ा में घिर जाएं? सृजन में तल्लीन होने की बात यहीं पर महत्वपूर्ण हो जाती है।
कितनाकुछ बचा है सीखने के लिए, करने और आनंद उठाने की खातिर और हम हैं कि तनावों में घिरे जा रहे हैं। याद कीजिए, उरुग्वे के रचनाकार एडुआडरे गालेआनो को। लैटिन अमेरिकी लेखक गालेआनो को सैन्य तानाशाही के अत्याचारों का शिकार होकर देश छोड़ने पर विवश होना पड़ा, लेकिन क्या वे ठहर गए? बिल्कुल नहीं! इसके विपरीत तथ्य तो यह है कि जब गालेआनो को दबाने की कोशिश की गई तो वे और मजबूत होकर उभरे। वे कहते हैं — जब भी कोई लिखता है तो वह औरों के साथ कुछ बांटने की जरूरत ही पूरी कर रहा होता है। यह लिखना अत्याचार के खिलाफ और अन्याय पर जीत के सुखद एहसास को साझा करने के लिए होता है। यह अपने और दूसरों के अकेले पड़ जाने के एहसास को खत्म करने के लिए होता है।’ कहा जा सकता है कि रामकृष्ण, निराला, गालेआनो या ऐसे और लोग महापुरुष हैं, रचनाकार हैं, इसलिए उनसे आम आदमी की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन ऐसी परिभाषा दरअसल, पलायनवादी होगी। हमने पहाड़ की छाती चीरकर दरिया निकाला है। दरिया की राह मोड़कर फसलों के लिए पानी लाए हैं। यह सब हमारे पुरखों ने किया है तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?

शायर इरशाद कामिल जब सदा देते हैं — ‘सियाह से सफेद हो गई ज़िन्दगी / आम रिसाले से पुराणवेद हो गई ज़िन्दगी ..’ तो यह बदलाव का ही उदाहरण है। वे मानते हैं कि अगर आपको देखना आता है तो जिंदगी  हर हाल में खूबसूरत है और देखना ही क्यों, महसूस करना भी आना चाहिए। बात यही है कि हर निराशा को मुंहतोड़ जवाब देने का एकमात्र तरीका है — सृजन। चाहे वह संगीत का हो, साहित्य हो, कोई और भी कला हो..। खुद में रोते बच्चों को हंसाने की कला जगाइए। जगा दीजिए, किसी अनपढ़ व्यक्ति में पढ़ाई-लिखाई की धुन। वह हंसेगा और देखिएगा — उसकी खिलखिलाहट से आपकी तकलीफ भी दूर भाग जाएगी। ऐसा यकीनन होगा। हर मध्यांतर को अपने लिए नई शुरुआत मानते हुए निदा फाजली के इस शेर के सहारे संकल्प लीजिए — गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो, जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे।

रिश्ते-नातों की यह पेंटिंग जिस कैनवास पर रची जाती है, वह है — घर

जिंदगी की जिंदादिल महफिल में आप सबका स्वागत। यह पंक्ति पढ़कर यकायक लगेगा कि हम कोई रेडियो प्रोग्राम तो नहीं सुन रहे। अब इसका जवाब यह है कि नहीं, आप लेख ही पढ़ रहे हैं, लेकिन यहां बात जिंदगी की हो रही है तो स्वागत की रस्म अदायगी जरूरी है और रस्म भी महज निभाने के लिए नहीं, बल्कि जिंदगी को महसूस करने के लिए है। जिंदगी को भरपूर जीना जरूरी है, नहीं तो यह महफिल वीरान रह जाएगी।



उत्साह से खाली हुई जिंदगी एकदम खाली बर्तन की तरह है, यह तो आप मानते ही होंगे। चलिए, एक बार फिर जीवन का अर्थ तलाशने की कोशिश में जुट जाते हैं और दोहराते हैं वही सनातन मंत्र — जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो लिया। किसी का होने का मतलब साफ है — दूजे के होंठों पर खुशी के गीत पिरोने का यत्न। ऐसी कोशिश, जिसका अंजाम किसी के लिए भी मुस्कुराहटों की फसल उगाना।


अच्छा, एक प्रश्न का उत्तर दीजिए जरा — इस फानी जिंदगी के बीच सबसे ज्यादा अक्षुण्ण, न मिटने वाला क्या रह जाता है। जवाब है — अच्छे कर्मो की, सुंदर व्यवहार की याद। हम सब संसार में एक-दूसरे के साथ किसी न किसी संबंध में बंधे हैं। कभी गौर करिए तो पाएंगे कि अखिल ब्रम्हांड, असंख्य आकाशगंगाओं और उनमें पलता जीवन, यहां तक कि जड़ वस्तुएं तक अन्योन्याश्रित हैं, पारस्परिक संबद्ध हैं। झरना पहाड़ से जुड़ा है, नदी झरने से। नदी बह चली तो समंदर से मिली।

समंदर का रिश्ता नदी से हुआ और जब भाप बनकर यही पानी उड़ा तो बादल बन गया। बारिश हुई और धरती का सीना लहलहा उठा। फसलें खिलीं और इंसान की भूख मिटी। देखिए, सब एक-दूसरे का हाथ किस कदर शिद्दत के साथ थामे हुए हैं। एक-दूसरे को अपना सब कुछ सौंपते हुए, फिर भी कोई एहसान नहीं जताते, अपनी कृपाओं की, साथ की, मोहम्बत की कोई डींग नहीं हांकते। महज इंसान ही बदल गया। उसने सबसे सब लिया और बदले में अपनी ओर से कुछ देने में हर पल कंजूसी बरती। कोई रिश्ता एकतरफा कहां होता है, नतीजा — कुदरत नाराज हुई। अक्सर होती रही है। कभी भू-स्खलन के रूप में, किसी पल बाढ़ और भूकंप की शक्ल में अपना गुस्सा दिखाती रही है, लेकिन इंसान यह नाराजगी समझना ही नहीं चाहता। वक्त आ गया है कि प्रकृति और पुरुष, यानी इंसान के संबंधों की गर्माहट को समझा जाए।

चलिए, कुदरत से अलग, दुनियाबी रिश्तों की बात करते हैं। कोई परिवार कैसे बनता है? आप कहेंगे, यह कौन-सा सवाल हुआ? हम सब जानते हैं कि संबंधों से ही परिवार की बुनावट होती है। माता-पिता, उनके बच्चे। बाकी बुजुर्ग और रिश्तेदार। यही सब मिलकर परिवार की शक्ल करते हैं, लेकिन रिश्ते-नातों की यह पेंटिंग जिस कैनवास पर रची जाती है, वह है — घर। हम कई बार इसे ही भुला देते हैं। यूं भी, हर रिश्ता कुछ कहता है, कुछ चाहता है। न.. नए कोई उपहार नहीं, आदर जैसी चीज भी नहीं, लेकिन प्यार के बदले प्यार की चाहत तो सबकी होती है।

सारी दुनिया में भारतीय परिवारों की सराहना होती है। कुछ तथाकथित पढ़े-लिखे लोग उपहास भी उड़ाते हैं कि हिंदुस्तानी पत्नी को अयोग्य पति भी मिल जाए तो वह उसका जिंदगी भर साथ देती है, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। सच तो यह है कि भारतीय परिवारों की जमीन में स्नेह और संस्कार का जो बीज मिला है, उससे विश्वास का वृक्ष तैयार होना स्वाभाविक है। पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी चलाते हैं तो भाई-बहन एक-दूसरे के व्यक्तित्व की नींव मजबूत बनाते हैं।

दादा-दादी से संस्कार मिलते हैं, वहीं नाना-नानी, मौसा-मौसी, मामा-मामी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची जैसे रिश्तों से अगाध स्नेह की मीठी-मीठी बारिश होती है। हर रिश्ते में कभी थोड़ी दूरी आती है तो कई बार लगता है — ये रिश्ते न होते तो जिंदगी में भला होता भी क्या! आइए, हम इन संबंधों की ऊष्मा को समझें। रिश्तों को महज ढोने, संभाले रखने, उनके साथ घिसटने की स्थितियों से बाहर निकलें। ये नाते मोहम्बत के तार हैं। इन्हें और मजबूत बनाएं। वक्त आ गया है कि हम रिश्तों की बोली को समझें और एक मुस्कान के बदले ढेर सारी हंसी देने को तैयार हो जाएं। लीजिए, मैं मुस्कुरा रहा हूं, अब आप अपनी हंसी की पोटली खाली कीजिए न झट से!

पहल खुद से हो ......

एक सूफी कहावत है कि ‘खुद को बेहतर बनाना ही, बेहतर गांव, बेहतर शहर, बेहतर देश और बेहतर दुनिया बनाने की ओर पहला कदम होता है।’
 
आप और जो भी हों फिलहाल एक पाठक हैं और अपने को गंभीरता से ले रहे हैं — तभी तो आप यह पढ़ रहे हैं! लेकिन आप सिर्फ पाठक ही नहीं, आप विद्यार्थी, शिक्षक, सैनिक, वकील, एग्जीक्यूटिव, व्यवसायी, कर्मचारी, मां, बाप, बहन, भाई और भी बहुत कुछ हो सकते हैं। इन सभी चीजों को कैसे लेते हैं? जाहिर है, आप कहंेगे कि गंभीरता से लेते हैं। हो सकता है लेते भी हों। 
 
लेकिन कई बार आप एकदम मामूली और व्यक्तिगत सवालों का भी तत्काल जवाब नहीं दे पाते! कोई अगर पूछे कि खाने में सबसे ज्यादा आपको क्या पसंद है तो जवाब देने से पहले आप सोचते हैं। आपका सोचना बताता है कि आप अपनी पसंद-श्नापसंद को भी ठीक से नहीं जानते, फिर कैसे मान लिया जाए कि आप अपने को और अपनों को गंभीरता से ले रहे हैं?
 
मेरे ख्याल से अपने को गंभीरता से लेने का मतलब है अपनी रुचियों, अपने रिश्तों, अपनी कमियों, अपनी संभावनाओं को जानना-समझना। जो नकारात्मक है उसे कम करते जाना और जो सकारात्मक है उसे संजोते-संवारते जाना। अपने को गंभीरता से लेने का मतलब है, दूसरों को भी गंभीरता से लेना, प्रकृति को गंभीरता से लेना। अपने को व्यक्ति ही नहीं सामाजिक प्राणी समझना। यानी अपनी वैयक्तिकता और सामाजिकता को समझना। 
 
किसी टीवी चैनल पर एक इंटरव्यू चल रहा था। प्रश्नकर्ता ने पूछा, ‘और अंत में कोई संदेश?’ और उसने मुस्कुराते हुए कहा, ‘टेक योरसेल्फ सीरियसली’। कहने वाला ज्योफ्रे आर्थर था। 
 
एक बेहद लोकप्रिय लेखक। उनकी बात ‘नाविक के तीर’ की तरह दिल में उतर गई थी। कई महीने हो गए। मैं उसी वाक्य में डूबता रहा हूं — ‘ज्यों बूड़े त्यों-त्यों तरे’ वाले अंदाज में। मुझे लगा इतनी उम्र हो गई पर क्या मैं अपने को गंभीरता से ले पाया हूं? बात खुलती गई और खुलती जा रही है। सोचा आपसे साझा कर लूं। हो सकता है आपको भी मेरी तरह झकझोर दिए जाने वाला एहसास हो। 
 
‘मैं कौन हूं’, यह मनुष्य के आदि प्रश्नों में से एक प्रश्न है। मैं से मतलब मेरा शरीर, मेरा मन-मस्तिष्क, मेरा व्यक्तित्व, मेरा अनोखापन, मेरे रिश्ते, मेरा समाज। और फिर इस गतिमान संसार में मैं कहीं अटका तो पड़ा नहीं हूं। मेरा एक अतीत है, वर्तमान है, भविष्य है, मेरी एक दिशा है, एक राह है। इसका मतलब हुआ कि मुझे अपने को गंभीरता से लेने के लिए अपने को समग्रता में लेना होगा, एक व्यक्ति, एक ऐतिहासिक, एक सांस्कृतिक और एक सामाजिक प्राणी के रूप में। 
 
गंभीरता के लिए गंभीर दिखना जरूरी नहीं। हम हंसते-खेलते हुए भी गंभीर हो सकते हैं। खेल-कूद, हंसी-मजाक, सफाई और गंदगी सभी गंभीर चीजें हैं। किसी को बढ़ाना गंभीरता है और किसी घटाना या खत्म करना। 
 
वास्तविकता यह है कि हम जो भी ‘अच्छा/सही’ करते हैं उसका श्रेय लेना चाहते हैं और जो भी ‘बुरा/गलत’ करते हैं, उसके लिए दूसरों को, जमाने को, किस्मत को दोष देते हैं। गंभीरता से लेने का मतलब है — अपने गुण-दोष, सही-गलत के लिए पहले अपने को फिर वंश-परंपरा, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, मित्र-शत्रु और सरकार-व्यवस्था को दोष देना। जो कारण बाहर हैं, उनके संबंध में कुछ कर पाना केवल हमारे हाथ में नहीं। पर जो अंदर के कारण अगर उन्हंे जान-समझ लें तो आप सीमाओं को घटाने और संभावनाओं को बढ़ाने में लग सकते हैं, और तत्काल। व्यवस्था-परिवर्तन में तो वक्त लगता ही है, पर अपना परिवर्तन तो तत्काल शुरू हो सकता है। 
 
यह क्रांतिकारी उपक्रम शुरू कैसे हो? यह भी सीधी बात है। पहले तो यही देखें कि यह ‘अपना’ जिसे गंभीरता से लेना है वह है क्या? शरीर और मन-मस्तिष्क। इन्हें तो गंभीरता से लेना ही पड़ेगा, क्योंकि ‘शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनम्’ और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन-मस्तिष्क। हम शरीर को तो थोड़ा गंभीरता से ले भी लेते हैं पर मन-मस्तिष्क को तो मानो भगवान-भरोसे ही छोड़े रहते हैं, जबकि उनका भी भौतिक आधार है और उन्हें भी पोसा-संवारा जा सकता है।
 
फिर सवाल उठता है अपने विविध रूपों का, रिश्तों का, हैसियतांे का। हमारे एक साथ कई रूप होते हैं। अक्सर एक को गंभीरता से लेने पर दूसरा नजरअंदाज होता दिखता है। जैसे कोई अपने पति रूप को गंभीरता से ले तो पुत्र-रूप नजरअंदाज हो सकता है, व्यक्तिगत सफलता को गंभीरता से लें तो सामाजिक रूप हाशिए पर जा सकता है।
 
ऐसा इसलिए होता है कि हम चीजों को समग्रता में नहीं ले पाते। हम अपने अपनत्व को संकीर्ण बनाते चले जाते हैं। अपनापन सिकुड़ता जाता है तो अपने पराए होते जाते हैं। अंतत: हम स्वयं भी पराएपन के शिकार होते जाते हैं। अजनबियत का विस्तार और इंसानियत का क्षरण होता चला जाता है। हम एक बार इतिहास और अपने चारांे ओर नजर दौड़ाकर तो देखें, हमें अनेक ऐसे लोग नजर आएंगे जिन्होंने अपने को गंभीरता से लिया और असंभव को संभव कर दिखाया, जैसे हेलेन केलर, गांधीजी, हाकिंग। हम सबके आसपास ऐसे बहुत से लोग दिखेंगे जिन्होंने अपने को गंभीरता से नहीं लिया, जैसे असाधारण साहित्यकार भुवनेश्वर। इस तरह वह गुमनामी में खो गए और समाज को एक अनोखी प्रतिभा से वंचित कर दिया। ऐसे भी लोग हैं और हुए हैं, जिनका अपने को गंभीरता से लेने का मुद्दा विवादास्पद हो सकता है जैसे रूसो और बोहे मियंस। 
 
यदि एक बार हम ठीक से आत्मसात् कर लें कि हमारे नितांत वैयक्तिक में भी सामाजिकता निहित है और नितांत सामाजिक में भी वैयक्तिक निहित है तो बात आसान हो सकती है। बहुत छोटा-सा उदाहरण देखें — सुबह ब्रश करना तो एक व्यक्तिगत काम है पर क्या इसका भी एक सामाजिक पहलू नहीं है? क्या अगर हमारे दांत गंदे रहते हैं और हमंे पायरिया हो जाता है तो इससे समाज प्रभावित नहीं होगा? इसी तरह समाज-सेवा या सामाजिक परिवर्तन का भी यह व्यक्तिगत पहलू नहीं है कि वांछित परिवर्तन हमारे अंदर भी आए — हमारा आचरण व्यवहार भी बदले? 
हम व्यक्तिवादी हों या समाजवादी, आस्तिक हों या नास्तिक, युवा हों या बुजुर्ग, अपने को गंभीरता से लेना हमारी विश्व-दृष्टि और विचारधारा का अभिन्न अंग होना चाहिए। इसके हर हाल में सकारात्मक परिणाम निकलेंगे। 
 
किसी बदलाव का कुछ तयशुदा नुस्खा नहीं, लेकिन बदल पाता है जो खुद को वही सबको बदलता है।

याद किया है...

जब कभी
तुम्हेँ मेरी
याद आये
तो समझ लेना
कि मैनेँ तुम्हेँ
याद किया है.....

कोई लक्ष्य .....

कोई लक्ष्य न होने की दिक्कत यह है कि आप अपनी ज़िन्दगी, मैदान में इधर - उधर दौड़ते हुए बिता देंगे पर एक भी गोल नहीं कर पाएंगे

मासूम सा रिश्ता

बस यही मासूम सा रिश्ता है तुमसे...
कि शामिल रहते हो मेरी हर दुआ में

मुमकिन नहीं....

मुमकिन नहीं शायद किसी को समझ पाना 

समझे बिना किसी के केसे करीब आना 

आसान है किसी को अपनी पसंद बनाना 

पर बहुत मुस्किल है किसी की पसंद बनाना 

सबसे खुबसूरत स्त्री...

माँ को रोता देख कर
बेटी बोली - आप दुनिया की
दूसरी सबसे खुबसूरत स्त्री हो
माँ हँस पड़ी
और बोली - तो पहली कोंन है
बेटी बोली -
पहली जब आप हँसती हो

लोगोँ की इच्छायेँ

लोगोँ की इच्छायेँ भी अजीब होती है पढ़ना तो प्राईवेट स्कूल मेँ चाहते हैँ लेकिन जॉब सरकारी करेगेँ......

खरीददार

ग़म की दुकान खोलकर बैठ हुआ था मैं
आँसू निकल पड़े हैं खरीददार देखकर

पत्नी और घड़ी के बीच का संबंध

पत्नी और घड़ी के बीच का संबंध: -

१. घड़ी चौबीस घंटे टिक-टिक करती रहती है !!
और पत्नी चौबीस घंटे चिक-चिक करती रहती है !!

२. घड़ी की सूइयाँ घूम-फिर कर वहीं आ जाती हैं !!
उसी प्रकार पत्नी को आप कितना भी समझा लो,
वो घूम-फिर कर वहीं आ जायेगी और अपनी ही बात
मनवायेगी !!

३. घड़ी में जब १२ बजते हैं तो तीनों सूइयाँ एक दिखाई देती हैं !!
लेकिन पत्नी के जब १२ बजते हैं तो एक
पत्नी भी ३-३ दिखाई देती है !!

४. घड़ी के अलार्म बजने का फिक्स टाइम है !!
लेकिन पत्नी के अलार्म बजने का कोई फिक्स टाइम नहीं है !!

५. घड़ी बिगड़ जाये तो रूक जाती है !!
लेकिन जब पत्नी बिगड़ जाये तो शुरू हो जाती है !!

६. घड़ी बिगड़ जाये तो मैकेनिक के यहाँ जाती है !!
पत्नी बिगड़ जाये तो मैके जाती है !!

७. घड़ी को चार्ज करने के लिये सेल(बैटरी)
का प्रयोग होता है !!
और पत्नी को चार्ज करने के लिये
सैलेरी का प्रयोग होता है !!

८. लेकिन सबसे बड़ा अंतर ये कि घड़ी को जब आपका दिल चाहे बदल सकते हैं !!
मगर पत्नी को चाह कर भी बदल नहीं सकते !!
उल्टा पत्नी के हिसाब से आपको खुद
को बदलना पड़ता है !!