तुम जब मुड़े थे,
मुड़ गया था समय...
अपनी धुरी से...
मेरे इंद्रधनुष छूट गए तुम्हारे पास...
और एक चमकीली हंसी भी...
मेरे चेहरे पर सूरज ने मल दी उदासी,
जो धूप के हर टुकड़े में पूरी नज़र आती है...
तुम ये कभी देख नहीं पाए शायद...
कि जो छूट गया वो तुम थे,
जो मेरे पास रहा, वो भी तुम ही थे...
पत्थर समय से टकराकर,
मज़बूत हो गए हैं हम,
और ज़रा-सा चालाक भी...
कंधे जो हल्के थे कभी,
अपने ही बोझ तले झुक गए हैं...
जो भी देखता है कहता है,
बड़े हो गए हैं हम...
जब हम बड़े होते हैं,
हमारे साथ बड़ी होती है उम्र...
और धुंधली होती है याद..
बीत चुके उम्र की...
हमारे साथ बड़ा होता है खालीपन....
छूट चुके रिश्तों का...
और बड़ा होता है खारापन,
आंसूओं का...
चुप्पियां बड़ी होती हैं,
और उनमें छिपा दर्द भी..
ये तमाम शहर बड़े होते हैं हमारे साथ...
हमारे-तुम्हारे शहर...
शहरों की दूरियां घटती हैं,
रिश्तों की नहीं घटती...
और उम्मीद भी तो बड़ी होती है....
कि किसी दिन तेज़ आंधी में,
जब लचक रहा होगा मन,
हम पकड़ सकेंगे उम्र का दूसरा सिरा...
उम्र न सही एक ख़ास दिन ही सही,
बड़ा दिन..
मुझे उधार दो कुछ रद्दी ख्वाहिशें,
और एक पुरानी छुअन भी,
हमारी उदासियों का कोरस जो तुम्हारे पास है...
कि इस दिन को सजाया जाए..
उम्र जो छूट गई तुम्हारे मुड़ने से...
उसका कोई नाम नहीं....
दिन जो बड़ी जतन से सजा है आज..
उसका कोई नाम तो हो...
कोई तो नाम रखो इस दिन का...
ज़िंदगी तुमको सौंपनी थी मगर,
लो ये बड़ा दिन तुम्हारे नाम किया...
मुड़ गया था समय...
अपनी धुरी से...
मेरे इंद्रधनुष छूट गए तुम्हारे पास...
और एक चमकीली हंसी भी...
मेरे चेहरे पर सूरज ने मल दी उदासी,
जो धूप के हर टुकड़े में पूरी नज़र आती है...
तुम ये कभी देख नहीं पाए शायद...
कि जो छूट गया वो तुम थे,
जो मेरे पास रहा, वो भी तुम ही थे...
पत्थर समय से टकराकर,
मज़बूत हो गए हैं हम,
और ज़रा-सा चालाक भी...
कंधे जो हल्के थे कभी,
अपने ही बोझ तले झुक गए हैं...
जो भी देखता है कहता है,
बड़े हो गए हैं हम...
जब हम बड़े होते हैं,
हमारे साथ बड़ी होती है उम्र...
और धुंधली होती है याद..
बीत चुके उम्र की...
हमारे साथ बड़ा होता है खालीपन....
छूट चुके रिश्तों का...
और बड़ा होता है खारापन,
आंसूओं का...
चुप्पियां बड़ी होती हैं,
और उनमें छिपा दर्द भी..
ये तमाम शहर बड़े होते हैं हमारे साथ...
हमारे-तुम्हारे शहर...
शहरों की दूरियां घटती हैं,
रिश्तों की नहीं घटती...
और उम्मीद भी तो बड़ी होती है....
कि किसी दिन तेज़ आंधी में,
जब लचक रहा होगा मन,
हम पकड़ सकेंगे उम्र का दूसरा सिरा...
उम्र न सही एक ख़ास दिन ही सही,
बड़ा दिन..
मुझे उधार दो कुछ रद्दी ख्वाहिशें,
और एक पुरानी छुअन भी,
हमारी उदासियों का कोरस जो तुम्हारे पास है...
कि इस दिन को सजाया जाए..
उम्र जो छूट गई तुम्हारे मुड़ने से...
उसका कोई नाम नहीं....
दिन जो बड़ी जतन से सजा है आज..
उसका कोई नाम तो हो...
कोई तो नाम रखो इस दिन का...
ज़िंदगी तुमको सौंपनी थी मगर,
लो ये बड़ा दिन तुम्हारे नाम किया...
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