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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

जुगाड़ के दम पर समाज में लोकप्रियता प्राप्त....

उच्च पदस्थ, धनवानों तथा बलिष्ठ लोगों को समाज में सम्मान से देखा जाता है और इसलिये उनसे मित्रता करने की होड़ लगी रहती है। जब समाज में सब कुछ सहज ढंग से चलता था तो जीवन के उतार चढ़ाव के साथ लोगों का स्तर ऊपर और नीचे होता था फिर भी अपने व्यवहार से लोगों का दिल जीतने वाले लोग अपने भौतिक पतन के बावजूद सम्मान पाते थे। बढ़ती आबादी के साथ राज्य करने के तौर तरीके बदले। समाज में राज्य का हस्तक्षेप इतना बढ़ा गया कि अर्थ, राजनीति तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में राजनीति का दबाव काम करने लगा है। इससे समाज में लोकप्रियता दिलाने वाले क्षेत्रों में राज्य के माध्यम से सफलता पाने के संक्षिप्त मार्ग चुनने की प्रक्रिया लोग अपनाने लगे। स्थिति यह हो गयी है कि योग्यता न होने के बावजूद केवल जुगाड़ के दम पर समाज में लोकप्रियता प्राप्त कर लेते हैं। दुष्ट लोग जनकल्याण का कार्य करने लगे है। हालत यह हो गयी है कि दुष्टता और सज्जनता के बीच पतला अंतर रह गया है जिसे समझना कठिन है। व्यक्तिगत जीवन में झांकना निजी स्वतंत्रा में हस्तक्षेप
                   उच्च पदस्थ, धनवानों तथा बलिष्ठ लोगों को समाज में सम्मान से देखा जाता है और इसलिये उनसे मित्रता करने की होड़ लगी रहती है। जब समाज में सब कुछ सहज ढंग से चलता था तो जीवन के उतार चढ़ाव के साथ लोगों का स्तर ऊपर और नीचे होता था फिर भी अपने व्यवहार से लोगों का दिल जीतने वाले लोग अपने भौतिक पतन के बावजूद सम्मान पाते थे। बढ़ती आबादी के साथ राज्य करने के तौर तरीके बदले। समाज में राज्य का हस्तक्षेप इतना बढ़ा गया कि अर्थ, राजनीति तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में राजनीति का दबाव काम करने लगा है। इससे समाज में लोकप्रियता दिलाने वाले क्षेत्रों में राज्य के माध्यम से सफलता पाने के संक्षिप्त मार्ग चुनने की प्रक्रिया लोग अपनाने लगे। स्थिति यह हो गयी है कि योग्यता न होने के बावजूद केवल जुगाड़ के दम पर समाज में लोकप्रियता प्राप्त कर लेते हैं। दुष्ट लोग जनकल्याण का कार्य करने लगे है। हालत यह हो गयी है कि दुष्टता और सज्जनता के बीच पतला अंतर रह गया है जिसे समझना कठिन है। व्यक्तिगत जीवन में झांकना निजी स्वतंत्रा में हस्तक्षेप माना जाता है पर सच यही है कि जिनका आचरण भ्रष्ट है वही आजकल उत्कृष्ट स्थानों पर विराजमान हो गये है। उनसे समाज का भला हो सकने की आशा करना स्वयं को ही धोखा देना है।
           कभी कभी तो ऐसा लगता है कि विद्वता के शिखर पर भी वही लोग विराजमान हो गये हैें जो इधर उधर के विचार पढ़कर अपनी जुबां से सभाओं में सुनाते हैं। कुछ तो विदेशी किताबों के अनुवाद कर अपने विचार इस तरह व्यक्त करते हैं जैसे कि उनका अनुवादक होना ही उनकी विद्वता का प्रमाण है। उनके चाटुकार वाह वाह करते हैं। परिणाम यह हुआ है कि अब लोग कहने लगे हैं कि शैक्षणिक, साहित्यक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अब नया चिंतन तो हो नहीं रहा उल्टे लोग अध्ययन और मनन की प्रक्रिया से ही परे हो रहे हैं। जैसे गुरु होंगे वैसे ही तो उनके शिष्य होंगे। शिक्षा देने वालों के पास अपना चिंतन नहीं है और जो उनकी संगत करते हैं उनको भी रटने की आदत हो जाती है। ज्ञान की बात सभी करते हैं पर व्यवहार में लाना तो विरलों के लिऐ ही संभव हो गया है।
            अब तो यह हालत हो गयी है की अनेक लोगों को मिलने वाले पुरस्कारों पर ही लोग हंसते हैं। जिनको समाज के लिये अमृतमय बताया जाता है उनके व्यवसाय ही विष बेचना है। सम्मानित होने से वह कोई अमृत सृजक नहीं बन जाते। इससे हमारे समाज की विश्व में स्थिति तो खराब होती है युवाओं में गलत संदेश जाता है। फिल्मों में ऐसे गीतों को नंबर बताकर उनको इनाम दिये जाते हैं जिनका घर में गाना ही अपराध जैसा लगता है। फिल्म और टीवी में माध्यम से समाज में विष अमृत कर बेचा जा रहा है। ऐसे में भारतीय अध्यात्म दर्शन से ही यह आशा रह जाती है क्योंकि वह समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाये रहता है।

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