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बुधवार, 1 अप्रैल 2009

परिवार की नींव

परिवार जैसा आज तक रहा है, उस परिवार को ठीक से समझने के लिए यह ध्यान में रख लेना जरूरी है कि परिवार का जन्म प्रेम से नहीं, बल्कि प्रेम को रोक कर हुआ है। इसीलिए सारे पुराने समाज प्रेम के पहले ही विवाह पर जोर देते रहे हैं। सारे पुराने समाजों का आग्रह रहा है कि विवाह पहले हो, प्रेम पीछे आए। विवाह पर जोर देने का अर्थ एक ही है कि परिवार एक यांत्रिक व्यवस्था बन सके। प्रेम के साथ यांत्रिक व्यवस्था का तालमेल बिठाना कठिन है।इसलिए जिस दिन दुनिया में प्रेम पूरी तरह मुक्त होगा, उस दिन परिवार आमूल रूप से बदल जाने को मजबूर हो जाएगा। जिस दिन से प्रेम को थोड़ी सी छूट मिलनी शुरू हुई है, उसी दिन से परिवार की नींव डगमगानी शुरू हो गई है। जिन समाजों में प्रेम ने जगह बना ली है, उन समाजों में परिवार बिखरती हुई व्यवस्था है, टूटती हुई व्यवस्था है।यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि परिवार की बुनियाद में हमने प्रेम को काट दिया है। परिवार एक व्यवस्था है, एक संस्था है, एक प्रेम की घटना नहीं। स्वभावतः जहां व्यवस्था है वहां कुशलता तो हो सकती है, लेकिन मनुष्य की आत्मा के विकास की संभावना क्षीण हो जाती है। प्रेम को व्यवस्थित नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह सच है कि प्रेम अपने ढंग की व्यवस्था लाता है, वह दूसरी बात है। अगर दो व्यक्ति प्रेम करते हैं और पास रहना चाहते हैं, तो उनके पास रहने में एक अनुशासन, एक व्यवस्था होगी। लेकिन वह व्यवस्था प्रमुख नहीं होगी, प्रेम का परिणाम भर होगा।लेकिन अगर दो व्यक्तियों को हम साथ रहने को मजबूर कर दें, तो भी उनमें एक तरह की पसंद पैदा हो जाएगी। लेकिन वह पसंद प्रेम नहीं है। और अगर व्यवस्था के भीतर हम दो व्यक्तियों को साथ बांध दें, दो कैदियों को भी जेलखाने में एक कोठरी में बंद कर दें, तो भी वे धीरे-धीरे एक-दूसरे को चाहने लगेंगे। वह चाहना प्रेम नहीं है। लाइकिंग और लव में फर्क है।तो एक पति और पत्नी यदि एक-दूसरे के साथ रह कर एक-दूसरे को चाहने लगते हैं, तो इसे प्रेम समझ लेने की भूल में पड़ जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। सिर्फ पसंद पैदा हो गई है साथ रहने से, एसोसिएशन से, जहां प्रेम नहीं है, वहां दो व्यक्तियों के बीच वह शांति, वह आनंद निर्मित नहीं हो सकता, जो कि वस्तुतः परिवार का आधार होना चाहिए। इसलिए चौबीस घंटे कलह परिवार की कथा होगी। और यह कलह रोज बढ़ती जा रही है।एक दिन था कि यह कलह न थी। ऐसा नहीं था कि उस दिन परिवार के नियम दूसरे थे। कलह न होने का कारण था कि स्त्री को किसी तरह की आत्मा नहीं थी, स्त्री को किसी तरह का व्यक्तित्व नहीं था, स्त्री को किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी। स्त्री को इस बुरी तरह दबाया गया था कि उससे सारा व्यक्तित्व छीन लिया गया था। तब कोई कलह न थी। मालिक और गुलाम के बीच, अगर पूरी व्यवस्था हो, तो कलह का कोई भी कारण नहीं होता है।लेकिन जैसे-जैसे स्त्री को स्वतंत्रता दी गई, वैसे-वैसे कलह बढ़ने लगी। क्योंकि दो समान हैसियत के, समान व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों के बीच यदि प्रेम न हो, तो सिर्फ व्यवस्था कलह नहीं रोक सकती।और यह भी इस संबंध में समझ लेना जरूरी है कि फासला जितना ज्यादा हो, उतनी कलह की संभावना कम होती है; फासला जितना कम होता जाए, उतनी कलह की संभावना बढ़ती जाती है। यह भी ध्यान रहे, फासला जितना ज्यादा हो, उतनी प्रेम की संभावना भी कम होती है; फासला जितना करीब होता जाए, उतनी ही प्रेम की संभावना भी बढ़ती है।आज मुझे सैकड़ों युवक और युवतियां मिलते हैं, जो कहते हैं कि हम अपने मां-बाप को देख कर ही विवाह करने से डर गए हैं। जो उनके बीच हो रहा है, अगर यही होना है, तो इससे बेहतर है अविवाहित रह जाएं। आज अमेरिका में लाखों युवक और युवतियां अविवाहित रह गए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें कोई ब्रह्मचर्य साधना है; इसलिए नहीं कि उन्हें कोई परमात्मा खोजना है; इसलिए नहीं कि उन्हें कोई चित्रकला की साधना करनी है या संगीत की साधना करनी है; सिर्फ इसलिए कि मां-बाप को देख कर वे चौंक गए हैं और डर गए हैं।मां-बाप ने एक अच्छा इंतजाम किया था बाल-विवाह का। चौंकने और डरने का उपाय न था। इसके पहले कि आप चौंकते और डरते और पहचानते, आप अपने को पाते कि विवाहित हो गए हैं। इसलिए जब तक बाल-विवाह था, तब तक एक शिकंजा बहुत गहरा था। लेकिन पच्चीस साल का पढ़ा-लिखा युवक और युवती पच्चीस बार सोचेंगे विवाह करने के लिए; देखेंगे कि चारों तरफ विवाह का परिणाम क्या हुआ है! जो चारों तरफ दिखाई पड़ता है वह बहुत दुखद है।हां, ऊपर से चेहरे रंगे-पुते दिखाई पड़ते हैं। सड़क पर पति और पत्नी चलते हैं तो ऐसा मालूम पड़ता है कि किसी स्वर्ग में रह रहे हैं। सभी फिल्में विवाह की जगह जाकर समाप्त हो जाती हैं। और सभी कहानियां विवाह के बाद एक वाक्य पर पूरी हो जाती हैं--कि उसके बाद वे दोनों आनंद से रहने लगे। इसके बाद की कोई बताता नहीं कि वह आनंद कैसा हुआ? कहानी खत्म हो जाती है कि विवाह के बाद दोनों आनंद से रहने लगे।असली कहानी यहीं से शुरू होती है। और वह कहानी आनंद की नहीं है, वह कहानी बहुत दुख की है। इसलिए उसे छेड़ना ही कोई फिल्म उचित नहीं समझती और कोई कथाकार उसको छेड़ना उचित नहीं समझता। विवाह के पहले तक कहानी चलती है, विवाह पर दि एंड, इति आ जाती है। असली कहानी वहीं से शुरू होती है। लेकिन उसे हम छिपाते रहे हैं। हमने आज तक खोल कर नहीं रखा कि एक पति-पत्नी के बीच जो लंबे नरक की कथा गुजरती है वह क्या है।नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी के बीच गुजरती है। सौ में शायद एक मौका होता है जब पति और पत्नी के बीच स्वर्ग भी गुजरता है। लेकिन सौ में निन्यानबे मौके पर नरक ही गुजरता है। होना उलटा चाहिए कि सौ में निन्यानबे मौके पर पति और पत्नी के बीच स्वर्ग गुजरे; एक मौके पर भूल-चूक हो जाए, बीमारी हो जाए, रुग्णता हो जाए, एक मौके पर नरक गुजर सके। लेकिन ऐसा नहीं है, हालतें उलटी हैं।हमारे समाज में दो व्यक्तियों को बिना प्रेम के साथ रहने को मजबूर किया जाता है, चाहे पंडित-पुरोहित उनकी जन्मकुंडली मिला कर तय कर रहे हों...। कैसा आश्चर्य है! प्रेम कहीं जन्मकुंडलियों से तय हो सकता है!
- ओशो

1 टिप्पणी:

Urmi ने कहा…

बहुत बढिया!! इसी तरह से लिखते रहिए !